'गोडसे से संबंधों पर मुकर गए थे सावरकर, उनके इस कदम से टूट गया था गोडसे का दिल'

काफी समय से विनायक दामोदर सावरकर पर बहस होती रही है, खासकर उनसे जुड़े ऐतिहासिक तथ्यों और मिथ को लेकर। सावरकर की मृत्यु 26 फरवरी 1966 को हुई थी। मशहूर इतिहास लेखक और पत्रकार धीरेंद्र के. झा की पिछले दिनों गोडसे पर एक किताब आई- गांधीज असैसिन: द मेकिंग ऑफ एंड हिज आइडिया ऑफ इंडिया। इस किताब में सावरकर का भी काफी जिक्र है। धीरेंद्र के. झा से बात की राहुल पाण्डेय ने। प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश: सावरकर पर अंग्रेजों से माफी मांगने का आरोप लगता रहता है। क्या यह एक आरोप उनकी समूची राष्ट्रभक्ति को ध्वस्त कर सकता है, जिसके तहत उन्होंने ढेरों क्रांतिकारी कार्यक्रम चलाए थे?जिन्होंने सावरकर पर अलग-अलग समय में किताबें लिखीं, वे कहते रहे हैं कि सावरकर का माफीनामा उनका चतुराई भरा कदम था, जैसा कि शिवाजी महाराज ने भी किया था। जेल से आने के बाद सावरकर ने एक भी ब्रिटिश विरोधी आंदोलन ना तो चलाया, ना उसमें हिस्सा लिया। हैदराबाद स्टेट में निजाम के खिलाफ 1938 में उन्होंने एक आंदोलन चलाया, जो हिंदू अधिकारों के लिए था, बेहद सांप्रदायिक था और इसके लिए वहां उनके पास कोई सपोर्ट भी नहीं था। सवाल उठता है कि 1924 में वह जेल से निकले, और तबसे लेकर 1947 तक राष्ट्रीय आंदोलन के बड़े-बड़े दौर आए, लेकिन सावरकर उनमें कहीं नहीं रहे। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनका माफीनामा कोई चतुराई भरा कदम नहीं था। असल में माफी मांगकर वह खुद को बचाने के लिए निकलना चाहते थे। अंडमान ने सावरकर को कितना बदला? क्या वह अंडमान में ही बदल गए थे या बाहर आने के बाद उनको कुछ वक्त लगा आगे का रास्ता तय करने में? धनंजय कीर ने सावरकर की जीवनी लिखी है। वह खुद भी सावरकरवादी हैं। धनंजय कहते हैं कि सावरकर इसलिए मुसलमानों के खिलाफ हो गए, क्योंकि अंडमान में मुस्लिम कैदी अत्याचार करते थे। हालांकि, उस समय अंडमान में जो दूसरे लोग थे, उनके लेखन से जेल की दूसरी ही तस्वीर उभरती है। जैसे त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती बंगाल के क्रांतिकारी थे। वह लिखते हैं कि सावरकर और उनके बड़े भाई गणेश राव सावरकर जेलर की गुडबुक में रहने की कोशिश करते थे। जब कैदियों ने वहां की हालत के खिलाफ अनशन शुरू किया तो ये लोग पीछे से तो जरूर शुरू में बोलते रहे, लेकिन कभी उनके साथ शामिल नहीं हुए। वे सुविधाएं छिनने से डरते। फिर ढेरों कैदी थे वहां, और तो कोई मुस्लिम विरोधी नहीं हुआ। इसका मतलब यह कि मुस्लिम कैदियों के अत्याचार वाली बात तथ्यों से परे है। अब सच क्या है? सच यह है कि जैसे ही सावरकर अंडमान से भारत आए, उन्होंने 'हिंदुत्व : हू इज हिंदू' किताब लिखी। सावरकर का जोर हिंदुओं को राष्ट्रीय आंदोलन से अलग करके मुस्लिम विरोध की लाइन पर लाने पर था। लेकिन अंडमान से निकलने के बाद सावरकर ने सामाजिक समरसता के आंदोलन भी तो चलाए थे... बिल्कुल चलाए थे। रत्नागिरी में उन्होंने छुआछूत के खिलाफ आंदोलन चलाया। एक पतित पावन मंदिर भी बनाया। लेकिन पॉइंट यह है कि जाति या छुआछूत की समस्या आप तब तक खत्म नहीं कर सकते, जब तक कि ब्राह्मणवाद को चुनौती नहीं देंगे। हिंदू महासभा इनका मंच था, जो पूरी तरह से ब्राह्मणों का मंच था। दूसरा आंदोलन इन्होंने निजाम के खिलाफ चलाया। उसमें महाराष्ट्र की हिंदू महासभा और आरएसएस के लोग जत्थे में वहां जाते थे। इसके पहले जत्थे को लीड करने वाला व्यक्ति नाथूराम गोडसे था। इनके बस यही दो आंदोलन हैं। आपने गोडसे का नाम लिया तो बताइए कि सावरकर और गोडसे की मुलाकात कैसे हुई? दोनों में संबंध कैसे बने और आगे कैसे बढ़े? गोडसे के भाई गोपाल गोडसे भी गांधी जी की हत्या में आरोपी थे। जेल से छूटकर उन्होंने एक किताब लिखी 'गांधी वध क्यों', जिसमें उन्होंने इसका कुछ जिक्र किया है। थोड़ा सा जिक्र गोडसे से हुई पूछताछ में मिलता है। मैट्रिक में फेल होने के बाद गोडसे अपने पिता के पास आ गया था। उसके पिता की 1929 में रत्नागिरी में पोस्टिंग हुई। जिस गली में सावरकर सन 1924 से रहते थे, उसी के दूसरे छोर पर ये लोग आए। सावरकर प्रसिद्ध थे तो वहां पहुंचते ही गोडसे उनसे मिलने गया, पर उनके प्रभाव में नहीं आया। जब गांधी जी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन की घोषणा की तो रत्नागिरी उसका प्रमुख केंद्र था। उसकी बैठकों में गोडसे भी जाता था। जब गांधी ने स्कूल-कॉलेज के बायकॉट की कॉल दी तो गोडसे ने तय किया कि वो दोबारा मैट्रिक की परीक्षा नहीं देगा। वह राष्ट्रीय आंदोलन की ओर जा रहा था। उसने सावरकर को बताया तो सावरकर बोले कि तुम ऐसा मत करो, तुमको अपना जीवन भी देखना है। अंतत: उसने परीक्षा तो नहीं दी, लेकिन गांधी जी के आंदोलन से भी बाहर रहा। यानी सावरकर या सावरकरवाद लोगों को राष्ट्रीय आंदोलन से अलग कर रहा था। हालांकि दोनों में कुछ समय दूरियां भी बनीं क्योंकि सावरकर ने कोई लाइन ऑफ एक्शन नहीं दी। गोडसे तीन-चार साल भटकता रहा, फिर सन 1934 में उसने आरएसएस जॉइन कर ली। 1937 में जब सावरकर फिर एक्टिव हुए, तब तक आरएसएस के महाराष्ट्र के प्रमुख काशीनाथ लिमये, जिन्हें बहुत लोग सावरकर के भाई की तरह देखते थे, वह गोडसे का गुरु बन चुका था। ऐसे में गोडसे सावरकर के काफी नजदीक आया, हिंदू महासभा में भी एक्टिव हुआ। जब उसने अखबार निकाला, तो उसमें सावरकर का पैसा लगा। लेकिन जब गांधी जी की हत्या के बाद सब लोग गिरफ्तार हुए, तो सावरकर गोडसे से संबंधों पर मुकर गए। इन लोगों की बचाव टीम में एक वकील थे- ईनामदार, वह अपनी किताब में लिखते हैं कि सावरकर के इस कदम से गोडसे का दिल बहुत टूट गया। सावरकर के हिंदुत्व और आज के हिंदुत्व में कितना बदलाव आया है?सच बताएं तो आज का जो हिंदुत्व है और सावरकर का जो हिंदुत्व था, अगर आप दोनों को मिलाकर देखेंगे तो आप पाएंगे कि दोनों का सार एक ही है- मुस्लिमों के प्रति घृणा। यह न तो उससे आगे बढ़ पाया है, ना पीछे हट पाया है।


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