यूपी चुनाव: टिकैत के परिवार पर डोरे डाल रहीं पार्टियां

राकेश टिकैत दो बार चुनाव लड़ चुके हैं। एक बार विधानसभा का और दूसरी बार लोकसभा का। दोनों बार उन्हें हार का सामना करना पड़ा। हालांकि उस वक्त तक वह राष्ट्रीय चेहरा नहीं बने थे। किसान आंदोलन ने उन्हें राष्ट्रीय पहचान दे दी है। अब जबकि उन पर आरोप लग रहा है कि उनका आंदोलन राजनीति प्रेरित है, जिसे विपक्ष की पार्टियों का समर्थन हासिल है तो इस आरोप को खारिज करने की जरूरत के मद्देनजर उनके यूपी विधानसभा चुनाव लड़ने की संभावना नहीं है। उनके नजदीकी लोग भी बता रहे हैं कि राकेश टिकैत विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगे। लेकिन वेस्ट यूपी से इस तरह की खबरें सुनने को मिल रही हैं कि उनके भाई चुनाव के मैदान में आ सकते हैं।

क्‍या राकेश टिकैत किसान आंदोलन के जरिए अगले साल होने वाले उत्‍तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए अपनी जमीन तैयार कर रहे हैं? करीबियों की मानें तो वे चुनाव नहीं लड़ेंगे।


खुद राकेश टिकैत नहीं लडेंगे यूपी विधानसभा का चुनाव! परिवार पर डोरे डाल रहीं पार्टियां

राकेश टिकैत दो बार चुनाव लड़ चुके हैं। एक बार विधानसभा का और दूसरी बार लोकसभा का। दोनों बार उन्हें हार का सामना करना पड़ा। हालांकि उस वक्त तक वह राष्ट्रीय चेहरा नहीं बने थे। किसान आंदोलन ने उन्हें राष्ट्रीय पहचान दे दी है। अब जबकि उन पर आरोप लग रहा है कि उनका आंदोलन राजनीति प्रेरित है, जिसे विपक्ष की पार्टियों का समर्थन हासिल है तो इस आरोप को खारिज करने की जरूरत के मद्देनजर उनके यूपी विधानसभा चुनाव लड़ने की संभावना नहीं है। उनके नजदीकी लोग भी बता रहे हैं कि राकेश टिकैत विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगे। लेकिन वेस्ट यूपी से इस तरह की खबरें सुनने को मिल रही हैं कि उनके भाई चुनाव के मैदान में आ सकते हैं।



परिवार से कोई लड़ा तो टिकैत का होगा समर्थन!
परिवार से कोई लड़ा तो टिकैत का होगा समर्थन!

कई राजनीतिक दल टिकैत के परिजनों के संपर्क में हैं ताकि उन्हें टिकट के लिए राजी किया जा सके। राजनीतिक दल ऐसा करने में अपना फायदा देख रहे हैं। राकेश टिकैत ऐसे तो किसी खास पार्टी को जिताने की अपील नहीं करेंगे, लेकिन अगर उनके परिवार का कोई शख्स किसी पार्टी से चुनाव लड़ रहा होगा तो स्वाभाविक रूप से उस पार्टी को राकेश टिकैत का समर्थन माना जाएगा।

2007 का विधानसभा चुनाव टिकैत ने निर्दलीय लड़ा था, लेकिन 2014 में उन्हें राष्ट्रीय लोकदल ने टिकट दिया था। 2014 में मोदी लहर के आगे राकेश टिकैत को टिकट देना भी राष्ट्रीय लोकदल को फायदा नहीं पहुंचा पाया था। चौधरी अजित सिंह और जयंत चौधरी, दोनों ही उस वक्त चुनाव हार गए थे। नए परिदृश्य में राकेश टिकैत राजनीतिक दलों के लिए कितने नफा-नुकसान का सबब बन सकते हैं, यह देखने वाली बात होगी।



सियासत जो न कराए
सियासत जो न कराए

पिछले दिनों लखनऊ में एक राजनीतिक समारोह का आयोजन हुआ। मौका था समाजवादी पार्टी के सीनियर लीडर रामगोपाल यादव के 75 साल पूरे होने के मौके पर उन पर केंद्रित एक पुस्तक के विमोचन का। यह ऐसी पुस्तक है, जिसमें रामगोपाल यादव पर प्रधानमंत्री से लेकर विपक्ष के तमाम बड़े नेताओं ने लेख लिखे। समारोह में भी विपक्ष के तमाम सीनियर नेताओं की जुटान हुई। मंच पर कांग्रेस के प्रमोद तिवारी से लेकर आरजेडी के मनोज झा तक को जगह मिली। हालांकि, इन दिनों जो दल समाजवादी पार्टी से सबसे ज्यादा गलबहियां करता दिख रहा है, उसके एक सीनियर लीडर को सभागार में मौजूद होने के बावजूद मंच पर जगह नहीं दी गई।

ऐसा क्यों हुआ? क्या यह समारोह का संचालन करने वालों की चूक थी? नहीं। हुआ यह कि इस समारोह में एक ऐसे मेहमान को बुलाया गया था जिन्होंने इस शर्त पर आने की रजामंदी दी थी कि मंच पर उनके साथ चाहे जिन नेताओं को बिठा लिया जाए, लेकिन अमुक नेता को वह स्वीकार नहीं करेंगे। उस मेहमान ने आयोजकों को बताया था कि अगर उस नेता को मंच पर उनके साथ बिठाया गया तो वह समारोह में शामिल नहीं होंगे। पता नहीं उस मेहमान को बुलाने की ऐसी क्या मजबूरी थी कि समाजवादी पार्टी के नेताओं ने उनकी वह शर्त मान ली।

‘अमुक’ नेता सभागार में अपने समकक्ष दूसरे नेताओं को मंच पर बैठे देखते रहे, लेकिन राजनीति में कई बार ऐसे कड़वे घूंट पीने पड़ते हैं। जल्द ही उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं। मंच पर बैठने के लिए उन्होंने समाजवादी पार्टी के साथ अपने रिश्तों को बिगाड़ना गैर-जरूरी समझा। शायद समय की यह मांग भी थी।



सिद्धू की नई चाल
सिद्धू की नई चाल

पंजाब में कांग्रेस को वाया नवजोत सिंह सिद्धू एक नया संकट खड़ा होता दिखने लगा है। मुख्यमंत्री पद हाथ से निकल जाने के बाद सिद्धू के पास इस पद के नजदीक पहुंचने का एकमात्र जो रास्ता बचा दिख रहा है, वह यह कि आगामी चुनाव में वह अपने ज्यादा से ज्यादा लोगों को टिकट दिलवाएं। साथ ही उनके लोग ज्यादा से ज्यादा जीत कर भी आएं ताकि पार्टी को बहुमत मिलने की स्थिति में मुख्यमंत्री पद पर उनका दावा मजबूत रहे। इस रणनीति के तहत उन्होंने अपने समर्थक नेताओं की एक लिस्ट बनाई है, जिन्हें वह विधानसभा का टिकट दिलाना चाहते हैं।

उधर, हाईकमान सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर ही अपनी गलती का अहसास कर रहा है। वह सिद्धू समर्थकों को ज्यादा टिकट देकर उन्हें और ताकतवर नहीं बनाना चाहता। उसे इस बात का अहसास हो चुका है कि सिद्धू भरोसेमंद नहीं हैं, वह कभी भी किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। इस वजह से वह फूंक-फूंक कर कदम उठा रहा है। उधर, सिद्धू भी ठहरे जिद्दी। उनके नजदीकी लोगों के जरिए दिल्ली तक इस तरह की खबरें पहुंचनी शुरू हुई हैं कि सिद्धू अपने लोगों को चुनाव जरूर लड़वाएंगे, भले उन्हें कांग्रेस से टिकट मिले या नहीं।

अगर कांग्रेस से टिकट नहीं मिलता है तो उनके लोग पंजाब की ‘भलाई’ के लिए निर्दलीय चुनाव लड़ सकते हैं। जबसे यह खबर कांग्रेस आलाकमान तक पहुंची है, उसका बेचैन होना स्वाभाविक है क्योंकि अगर ऐसी स्थिति बनती है तो कांग्रेस का नुकसान होना तय है। पार्टी के गलियारों में पहले से ही यह बात कही जा रही है कि पंजाब में कांग्रेस की वापसी जितनी आसान देखी जा रही थी, मुख्यमंत्री बदले जाने के बाद पैदा हुई स्थितियों में मुश्किल दिखने लगी है। अगर सिद्धू ने जहां-तहां अपने उम्मीदवार उतार दिए, तब तो और ज्यादा मुश्किल खड़ी हो जाएगी।



सबको बनना है मंत्री
सबको बनना है मंत्री

मजबूरी का फायदा सभी उठाना चाहते हैं। राजनीति में तो यह कुछ ज्यादा ही होता है। इन दिनों ऐसा ही राजस्थान में देखने को मिल रहा है। पहले से चल रहे असंतोष को खत्म करने के लिए सीएम अशोक गहलोत ने मंत्रिपरिषद का विस्तार किया। राजस्थान में दो सौ सदस्यों की विधानसभा है। इस लिहाज से वहां मुख्यमंत्री सहित अधिकतम 30 लोग ही मंत्रिपरिषद में हो सकते हैं। यह कोटा फुल हो गया है, लेकिन मंत्री बनने वालों की चाह खत्म नहीं हो रही है।

कांग्रेस के अपने ही 108 विधायक हैं। कोई दर्जन भर निर्दलीय भी सरकार का समर्थन कर रहे हैं। ये सभी मंत्री बनना चाहते हैं। इनको मंत्री बनाने की ख्वाहिश पूरी करने को नया रास्ता निकालने की कोशिश हो रही है। हर मंत्री के साथ उस मंत्रालय का एक सलाहकार नियुक्त किया जा सकता है, जिसे मंत्री पद का दर्जा दिया जाएगा। इसके अलावा सभी निगमों और आयोगों की लिस्ट बनाई जा रही है, जिसमें मनोनयन किया जा सके। कुल मिलाकर सीएम ऐसा बंदोबस्त करने में जुटे हैं कि लगभग सभी सवा सौ विधायक किसी न किसी रूप में मंत्री पद का मजा ले सकें।

राजस्थान में मुख्य विपक्षी दल के रूप में बीजेपी इसे एक बड़ा मुद्दा बना सकती थी, लेकिन पार्टी फिलहाल अपनी अंदरूनी लड़ाई से ही नहीं उबर पा रही है। बीजेपी के ज्यादातर नेता राज्य में कांग्रेस सरकार पर हमलावर होने के पहले अपना ही हिसाब चुकता कर लेना चाहते हैं। मसला मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवारी का जो ठहरा। राज्य विधानसभा के चुनाव में भले ही अभी दो साल का वक्त बाकी हो, लेकिन पार्टी के नेता अभी से यह साफ कर लेना चाहते हैं कि अगला चुनाव किसके नेतृत्व में लड़ा जाएगा।





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