ममता के दिल्‍ली मिशन के पीछे कौन?

ममता बनर्जी की अगुआई में टीएमसी ने ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया है। 2024 आम चुनाव में खुद को नरेंद्र मोदी के मुख्य चैलेंजर के रूप में पेश करने के लिए ममता बनर्जी ने हाल के दिनों में एक के बाद एक कई सियासी चालें चली हैं। इसी साल मई में पश्चिम बंगाल में लगातार तीसरी बार विधानसभा चुनाव बड़े अंतर से जीतने के बाद अचानक टीएमसी ने सियासी गियर बदला और नॉर्थ-ईस्ट, गोवा, बिहार सहित कई राज्यों में अपनी सक्रियता बढ़ाई। इससे एक ओर विपक्षी एकता बेपटरी होती दिखी तो दूसरी ओर उनके कुछ कदम अति महत्वाकांक्षी भी माने गए। टीएमसी के दिल्ली विस्तार योजना के पीछे ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी और प्रशांत किशोर की रणनीति मानी जा रही है।

Mamata Banerjee Latest News: ममता बनर्जी जिस तरह से राजनीतिक चालें चल रही हैं, उससे साफ है कि वह 2024 के लोकसभा चुनाव में खुद को पीएम नरेंद्र मोदी के मुख्‍य चैलेंजर के रूप में पेश करना चाहती हैं।


पीएम मोदी का चैलेंजर बनने को एक के बाद एक सियासी दांव... ममता बनर्जी के दिल्‍ली मिशन के पीछे कौन?

ममता बनर्जी की अगुआई में टीएमसी ने ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया है। 2024 आम चुनाव में खुद को नरेंद्र मोदी के मुख्य चैलेंजर के रूप में पेश करने के लिए ममता बनर्जी ने हाल के दिनों में एक के बाद एक कई सियासी चालें चली हैं। इसी साल मई में पश्चिम बंगाल में लगातार तीसरी बार विधानसभा चुनाव बड़े अंतर से जीतने के बाद अचानक टीएमसी ने सियासी गियर बदला और नॉर्थ-ईस्ट, गोवा, बिहार सहित कई राज्यों में अपनी सक्रियता बढ़ाई। इससे एक ओर विपक्षी एकता बेपटरी होती दिखी तो दूसरी ओर उनके कुछ कदम अति महत्वाकांक्षी भी माने गए। टीएमसी के दिल्ली विस्तार योजना के पीछे ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी और प्रशांत किशोर की रणनीति मानी जा रही है।



सुस्‍त पढ़ा था मिशन, ममता अब ऐक्‍शन में
सुस्‍त पढ़ा था मिशन, ममता अब ऐक्‍शन में

टीएमसी सूत्रों के अनुसार ममता बनर्जी की राष्ट्रीय राजनीति में आने की यह हसरत अचानक नहीं उमड़ी है। 2017 से ही इसका बैकग्राउंड बन रहा है। 2016 में 8 नवंबर को जब पीएम मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की, तो ठीक एक घंटे बाद सबसे पहले करारे विरोध के साथ पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी मैदान में उतर आईं। नोटबंदी की घोषणा के 48 घंटे के बाद भी कांग्रेस सहित दूसरे विपक्षी दल राजनीतिक नफा-नुकसान के आकलन में जुटे थे, लेकिन ममता ने सारी हिचक छोड़कर इस घोषणा को नरेंद्र मोदी पर हमला करने का सबसे बड़ा हथियार बना लिया।

तभी से वह केंद्र सरकार की सबसे प्रखर आलोचकों में रहीं। लेकिन बाद में जब बीजेपी ने उनको उनके ही राज्य में घेरने का प्लान बनाया, तो ममता पहले अपने दुर्ग को बचाने में लग गईं। लोकसभा में बीजेपी ममता का किला ढहाने में बहुत हद तक सफल भी रही, लेकिन विधानसभा चुनाव में टीएमसी फिर मजबूत होकर उभरी। इसके बाद ममता ने अपने सुस्त पड़े मिशन को असरदार ढंग से आगे बढ़ाया।



मौका देखकर मारा चौका
मौका देखकर मारा चौका

ऐन उसी वक्त कई क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस पर मुख्य विपक्ष के रूप में लड़ने की ताकत और ललक पर सवाल उठाया। ऐसे में ममता बनर्जी को मौका दिखा और वह कांग्रेस के बदले खुद को ऐसे नेता के रूप में पेश करने लगीं, जो देश के क्षेत्रीय दलों को एक करके राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी से लड़ सकता है। सूत्रों के अनुसार अगले कुछ दिनों में टीएमसी इस दिशा में कुछ और भी बड़े कदम उठा सकती है।

संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दो दिन वह कांग्रेस से दूर रहकर समानांतर विपक्षी रणनीति बनाती दिखी। सोमवार को सत्र के पहले दिन जब कांग्रेस ने विपक्षी दलों की मीटिंग बुलाई तो इसमें टीएमसी तो नहीं ही आई, बल्कि समाजवादी पार्टी, आरजेडी, आप जैसे दलों से भी उसने संपर्क साधा कि वे भी इस मीटिंग में न जाएं। त्रिपुरा में स्थानीय निकाय चुनाव में टीएमसी ने लेफ्ट और कांग्रेस से अधिक वोट पाए। अब टीएमसी पूरी ताकत से गोवा विधानसभा चुनाव में उतरी है। इस चुनाव का परिणाम टीएमसी के ‘दिल्ली चलो’ अभियान को एक रियलिटी चेक दे सकता है।



पहले भी कई नेता पेश कर चुके दावेदारी
पहले भी कई नेता पेश कर चुके दावेदारी

ऐसा नहीं है कि हाल के सालों में ममता बनर्जी पहली ऐसी क्षेत्रीय नेता हैं, जिन्होंने अपनी राष्ट्रीय हसरत दिखाई है। 2014 में दिल्ली में नरेंद्र मोदी के पीएम बनने के बाद उनके चैलेंजर के रूप में बिहार के सीएम नीतीश कुमार और दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल खुद को पेश कर चुके हैं। 2015 में बिहार में लालू प्रसाद के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव जीतने के बाद नीतीश कुमार की मोदी के सामने खुद को विकल्प के रूप में पेश करने की हसरत किसी से छिपी नहीं रही। तब उन्होंने नरेंद्र मोदी के नारे ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के सामने ‘संघ मुक्त भारत’ अजेंडे के साथ सभी विपक्षी दलों को एक मंच पर लाकर उन्हें लीड करने की दबी इच्छा भी पेश की थी।

नीतीश कुमार ने शराबबंदी को आधार बनाया, उसके विस्तार के लिए उन्होंने बिहार के बाहर लगातार रैलियां भी कीं। फिर अलग-अलग राज्यों में आरक्षण के नाम पर सियासी गोलबंदी की। दिल्ली के लोकल चुनाव में उतरे। 2019 से पहले नीतीश कुमार खुद पैन इंडिया इमेज के विस्तार में लगे रहे। उन्होंने सोशलिस्ट विचार वाले दलों को एक कर नई पार्टी बनाने का भी एलान किया। दूसरे क्षेत्रीय दलों से संपर्क किया। लेकिन इससे पहले कि उनकी योजना टेकऑफ कर पाती, उनका महागठबंधन बिहार में ही क्रैश कर गया और खुद वही बीजेपी के साथ चले गए।



हड़बड़ी से हुई गड़बड़ी
हड़बड़ी से हुई गड़बड़ी

उसी तरह अरविंद केजरीवाल ने जब 2013 में दिल्ली में बेहतर प्रदर्शन किया, तो उसके बाद उनमें और उनकी पार्टी में भी राष्ट्रीय राजनीति में छाप छोड़ने का लोभ आया। पार्टी बिना जमीनी तैयारी और काडर के 400 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ी और सबसे अधिक जमानत जब्त कराने वाली पार्टी बन गई। अरविंद केजरीवाल नरेंद्र मोदी से लड़ने वाराणसी पहुंच गए। अरविंद केजरीवाल की यह हड़बड़ी उनके तात्कालिक पतन का कारण बन गई। देश भर में फैलने की ललक ने दिल्ली में उनके अस्तित्व पर सवाल उठा दिया। लेकिन बाद में संभले और पहले दिल्ली में खुद को मजबूत करने पर ध्यान दिया। अब एक बार फिर अरविंद केजरीवाल की अगुआई वाली आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय हसरत सामने आई है।

पार्टी को पंजाब से काफी उम्मीदें हैं। वहां कांग्रेस सरकार के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी और आपसी गुटबाजी के कारण दिल्ली की तरह वहां भी पार्टी को संभावना दिख रही है। अगर दिल्ली की तरह पंजाब में आप जीत गई तो फिर वह राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर आक्रामक रूप से आगे बढ़ सकती है। इसके अलावा पार्टी उत्तराखंड और गोवा में भी पूरी ताकत से लड़ रही है, जबकि उत्तर प्रदेश में उसके समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करने की संभावना है। ऐसे में अगर पार्टी ने अगले साल की शुरुआत में बेहतर प्रदर्शन किया तो ममता बनर्जी के साथ अरविंद केजरीवाल भी इस दौड़ में स्वभाविक रूप से शामिल हो जाएंगे। लेकिन सफलता नहीं मिली तो फिर अगले कुछ सालों तक इस पर ब्रेक लग सकता है।





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