अब श्रम कानूनों की भी वापसी की मांग करने लगे किसान संगठन, आखिर दिल्ली बॉर्डर पर जमे नेता चाहते क्या हैं?

नई दिल्ली का मकसद क्या है? यह सवाल फिर से बहुत महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि इसकी अगुवाई कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा (SKM) ने अपनी मांगों की फेहरिस्त फिर से बढ़ा दी है। अब किसान आंदोलन के अगुवा देश में मजदूरों का आंदोलन भी खड़ा करने की जुगत में जुट गए हैं। किसान मोर्चा अब मजदूर मोर्चे के साथ गठबंधन करके एक संयुक्त मंच तैयार करने का ऐलान किया है। उसने पांच राज्यों- उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर सरकार पर दबाव बढ़ाने के लिए नई रणनीति पर कदम बढ़ा दिया है। प्रधानमंत्री के अश्वासन पर भरोसा नहीं! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 16 नवंबर को 'देश के नाम संबोधन' में तीनों नए कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान किया। तब पूरे देश को उम्मीद थी कि अब किसान अपना आंदोलन वापस ले लेंगे। लेकिन, थोड़ी ही देर में फिर से हताशा छा गई। संयुक्त किसान मोर्चा ने तुरंत बयान जारी कर कह दिया कि किसान दिल्ली की सीमाओं पर तब तक डेरा डाले रहेंगे जब तक कि प्रधानमंत्री की घोषणा के मुताबिक कृषि कानूनों को खत्म करने की संसदीय प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाए। सरकार ने फिर से नरमी दिखाई और आंदोलनरत किसान की इस जिद के आगे झुकी। नतीजतन, संसद सत्र के पहले ही दिन कृषि कानूनों की वापसी का विधेयक संसद में पेश किया जा रहा है। बढ़ती जा रही है मांगों की फेहरिस्त आंदोलनकारी किसान इतने से भी नहीं माने, उन्होंने सरकार को छह सूत्री मांगों की सूची सौंप दी। उनकी मांगों में एमएसपी पर कानूनी गारंटी, बिजली संशोधन विधेयक की वापसी, पराली जलाने पर किसानों पर दर्ज मामलों की समाप्ति, विभिन्न राज्यों में प्रदर्शन के दौरान किसानों पर दर्ज मामलों की वापसी, गृह राज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा की गिरफ्तारी एवं मंत्रिमंडल से बाहर की मांग और आंदोलन के दौरान जान गंवाने वाले करीब 700 किसानों के परिजनों को मुआवजा देना शामिल है। सरकार मुआवजे से लेकर मुकदमों की वापसी तक, इनमें ज्यादातर मांगों पर भी विचार करने को तैयार है। उसके बाद अब आंदोलनकारियों ने नया मोर्च खोल दिया। संघर्ष के नए-नए मोर्चे खोल रहे हैं किसान अब किसान चार श्रम संहिताओं (Labour Codes) की वापसी की भी मांग भी करने लगे हैं। केंद्र सरकार ने दर्जनों श्रम कानूनों के मकड़जाल को खत्म करके उन्हें चार श्रम संहिताओं में समाहित किया। इसकी मांग वर्षों से हो रही थी। नई व्यवस्था के तहत न्यूतनतम मजदूरी तय करने के साथ-साथ मजूदरों की सामाजिक सुरक्षा का दायरा बढ़ाने का प्रस्ताव भी किया गया है। दूसरी तरफ, 300 से कम श्रमिकों वाली कंपनियों को काम के अनुसार नौकरी पर रखने या निकालने की छूट देने का प्रस्ताव भी है। क्या सच में आंदोलन खत्म करना चाहते हैं किसान? इस प्रावधान के खिलाफ संयुक्त किसान मोर्चा (SKM) और केंद्रीय व्यापारी संघ (Central Trader Union or CTU) ने एक संयुक्त बयान में कहा कि मौजूदा सरकार किसानों और देश के हितों के खिलाफ विनाशकारी नीतियां ला रही है। इसलिए, हम ऐसी नीतियों को खत्म करने और मौजूदा हालात बदलने के लिए हम एकजुट होकर अपना संघर्ष बढ़ाएंगे और अपनी आवाज मजबूत करेंगे। बयान में कहा गया है, 'भारत के मजदूरों और किसानों का लक्ष्य ही हमारा लक्ष्य है।' किसान अपनी मांगें बढ़ा रहे हैं और सरकार उनकी मांगों पर गौर भी कर रही है। बावजूद किसानों को लगता है कि सरकार एकतरफा और अलोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन खत्म करने पर तुली है। एसकेएम ने रविवार को कहा कि सरकार को किसानों से बातचीत करनी चाहिए। किसान संगठन की विरोधाभासी बातें कितनी हैरत की बात है कि जिन किसान नेताओं को प्रधानमंत्री के वादे पर भरोसा नहीं है, वो बीजेपी शासित राज्यों के लिए केंद्र से भरोसा चाहते हैं! केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने आंदोलनरत किसानों की छह नई मांगों पर शनिवार को कहा कि किसानों के खिलाफ दर्ज मुकदमों की वापसी और आंदोलन के दौरान जान गंवाने वाले किसानों के परिजनों को मुआवजा देने का फैसला राज्य सरकारें करेंगी। इस पर संयुक्त किसान मोर्चा ने रविवार को कहा, 'पंजाब दोनों मुद्दों पर भरोसा दिला चुका है। चूंकि बाकी सभी बीजेपी शासित राज्य हैं और चूंकि बीजेपी शासित भारत सरकार के उठाए किसान विरोधी कदमों के कारण ही आंदोलन की शुरुआत हुई है, इसलिए जरूरी है कि इस पर केंद्र सरकार भरोसा दिलाए ताकि बीजेपी शासित राज्यों को इन्हें लागू करने को बाध्य होना पड़े।' अब मंशा पर उठेंगे सवाल ऊपर के उदाहरणों से लाजिमी है कि दिल्ली बॉर्डर पर एक साल से डटे किसान संगठनों के प्रतिनिधि मोर्चे के रवैये पर सवाल उठे। आखिर, देश के प्रधानमंत्री के बयान पर भरोसा नहीं करने वाले, किस आधार पर उन मामलों पर केंद्र से आश्वासन चाहते हैं जिन पर राज्यों को फैसला लेना है? सवाल यह भी है कि 'सरकार के एक कदम बढ़ाएगी तो हम चार कदम बढ़ाएंगे' की रट लगाने वाले नेताओं से क्या यह पूछना अप्रासंगिक होगा कि क्या सुलह का रस्ता यही होता है? सरकार जैसे-जैसे नरमी बरत रही है, वैसे-वैसे किसान नेता रौद्र रूप धारण करने लगे हैं। इससे क्या उनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं दिखता है? इन सवालों के उचित जवाब दे पाएंगे किसान नेता? आखिर, नई-नई मांगें करना, वो भी दायरा लांघकर दूसरी सीमा में प्रवेश करने के औचित्य पर सवाल तो खड़ा किया ही जाएगा? आखिर, किसानों को क्या पड़ी है कि वो मजदूरों की बात करे? क्या किसान आंदोलन के शुरुआती अजेंडे में भी शामिल थी? जब सरकार किसानों से सुलह करने के मूड में दिख रही है तो नए-नए मोर्चे खोलकर उसे घेरते रहने की रणनीति पर सवालिया निशान नहीं लगने चाहिए? आखिर दिल्ली बॉर्डर पर बैठे लोग किसानों का हित चाहते हैं या फिर बीजेपी का अहित, उन्हें यह स्पष्ट करना होगा क्योंकि धीरे-धीरे यह धारणा मजबूत हो सकती है कि किसान नेताओं को किसानों के हितों से ज्यादा इस बात को लेकर चिंतित हैं कि वो चुनावों में बीजेपी को नुकसान पहुंचा पाएंगे या नहीं?


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