प. बंगाल में बीजेपी जीत चुकी है, रिजल्ट जो भी हो, जानें कैसे
Bengal Election Exit Poll 2021 : बहुसंख्यक वोटरों को रिझाने के लिए चुनाव प्रचार के दौरान ममता ने चंडी पाठ किया और खुद को हिंदू दिखाने की कोशिश की। बीजेपी यहां जीत गई, अब नतीजा कुछ भी हो।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के बीच मोटे तौर एक बात कॉमन है। दोनों विपक्षी नेता हैं। अखिलेश उन 15 नेताओं में भी हैं, जिनको ममता ने पिछले दिनों लेटर लिखा। ममता ने समर्थन मांगा था बीजेपी विरोधी मोर्चा बनाने के लिए। पत्र में ममता ने कहा था कि भारत के संघीय ढांचे पर सुनियोजित तरीके से हमला किया जा रहा है, जिससे देश की लोकतांत्रिक परंपराएं खत्म हो जाएंगी।
पढ़ें पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय का यह दिलचस्प लेख....
हिंदू दिखाने की होड़
ममता और आखिलेश में एक और बात कॉमन है। हाल में दोनों ने ही सार्वजनिक रूप से जताया कि वे हिंदू हैं। ममता चुनाव प्रचार के दौरान कई मंदिरों में गईं। उन्होंने चंडी पाठ किया और यह भी जताया कि वह ब्राह्मण हैं। अखिलेश इतने सौभाग्यशाली नहीं रहे कि सबके बीच इस तरह का कोई काम कर सकें। वह कोविड पॉजिटिव भी हो गए। बताया गया कि कुंभ स्नान करने के अलावा वह हरिद्वार में एक जाने-माने संत का आशीर्वाद लेने गए थे। समझा जाता है कि संत पहले ही कोरोना की चपेट में आ चुके थे। हालांकि वह पॉजिटिव हुए बाद में। यह दलील दी जा सकती है कि ममता और अखिलेश, दोनों हिंदू हैं, लिहाजा उन्होंने जो पूजा-पाठ या चंडी पाठ किया, उससे उनके सेक्युलर राजनेता होने पर सवाल नहीं उठता। गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने खुद को दत्तात्रेय ब्राह्मण दिखाने का प्रयास किया था। ममता और अखिलेश ने जो कुछ किया, उसकी वजह यह है कि वे बीजेपी को कोई मौका नहीं देना चाहते कि वह उन पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाए। कुछ साल पहले सोनिया गांधी ने अफसोस जताया ही था कि बीजेपी के मजबूत राजनीतिक ताकत बनने के बाद उनकी पार्टी को 'अल्पसंख्यक समर्थक' इमेज के कारण चुनावी नुकसान हुआ।
...नीतीश ने दी थी मोदी को सीख
अपनी हिंदू पहचान दिखाने की यह जो बेचैनी है, यह एक से दूसरे नेता को अपनी चपेट में लेती जा रही है। यह सब देश के गणतंत्र बनने के समय के माहौल से ठीक उलट है। तब राजनीतिक वर्ग में आम सहमति थी कि भारत में जो बहुसंख्यक समुदाय है, वह धार्मिक अल्पसंख्यकों, खासतौर से मुसलमानों को यह अहसास कराएगा कि वे सुरक्षित हैं। यही वह समझ थी, जिसके दम पर बिहार के चीफ मिनिस्टर नीतीश कुमार ने 2011 में नरेंद्र मोदी को निशाने पर ले लिया। तब मोदी ने एक मुस्लिम धर्मगुरु की ओर से दी गई टोपी पहनने से मना कर दिया था। तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे मोदी, लेकिन उन्हीं दिनों अपना वह अभियान शुरू कर चुके थे, जिसने उन्हें प्रधानमंत्री पद तक पहुंचाया। तब नीतीश ने मोदी को जो सलाह दी थी, उसे दोहराया जाना चाहिए। नीतीश ने कहा था, "हमारा देश विविधताओं वाला है। यहां प्रतीकों की इज्जत की जानी चाहिए। सद्भावना बनाने के लिए कभी टोपी पहननी पड़ती है तो कभी तिलक लगाना पड़ता है।"
आठ साल बाद बदल गए हालात
इस तंज के बमुश्किल आठ साल बाद हालात बदल गए। मुसलमान जो टोपी पहनते हैं, उसे पब्लिक लाइफ में पहनना जरूरी नहीं रह गया। यही नहीं, ममता और अखिलेश की तरह तमाम नेता अपने हिंदू प्रतीकों का प्रदर्शन करने में जुट गए। नीतीश कुमार का हाल तो सबके सामने है ही। प्रधानमंत्री ने भी विरोधियों पर 'न्यू इंडिया' के तौर तरीकों का ख्याल रखने का दबाव बनाया है। इसमें धार्मिक अल्पसंख्यकों के हितों की फिक्र करने से राजनीतिक नुकसान हो सकता है।
ममता को भी बीजेपी का डर?
विपक्षी दल दरअसल अपने इस अनुमान से प्रभावित हैं कि मोदी और उनकी सरकार के कामकाज में लोगों को जो भी कमियां दिखती हों, एक 'उपलब्धि' उनकी नजर में रहती है। यही कि उन्होंने मुसलमानों को 'टाइट' कर दिया है। अखिलेश ने भी हाल के वर्षों में, खासतौर से साल 2017 के बाद से हिंदू राष्ट्रवादी नीतियों पर शायद ही कभी कोई सवाल किया हो। उनका यह रवैया उनके पिता के तीन दशक पहले के रुख के उलट है। अक्टूबर 1990 की बात है। विश्व हिंदू परिषद ने ऐलान किया था अयोध्या में विवादित जगह पर कार सेवा करने का। तब यूपी के सीएम रहे मुलायम सिंह यादव ने वादा किया था कि उस दिन अयोध्या में 'एक चिड़िया भी पर नहीं मार सकेगी।' ममता की बात करें तो इस बार के असेंबली इलेक्शन में उन्होंने कम मुसलमानों को टिकट दिया।
प्रशांत किशोर का प्रभाव
ममता और अखिलेश दोनों ने प्रशांत किशोर का सहारा लिया है चुनाव प्रचार में। मोदी जब गुजरात के सीएम थे, उन दिनों में प्रशांत उनके साथ चुनाव रणनीतिकार के रूप में जुड़े। उसके बाद से वह प्रवचन देते रहे हैं कि विचारधारा और नीतियों से प्रतिबद्धता की कोई जरूरत नहीं। अपनी इस सोच के साथ वह राजनीतिक रूप से विरोधी खेमों में आवाजाही करते रहे। प्रशांत का प्रभाव ममता के उस पत्र पर देखा जा सकता है, जो उन्होंने विपक्षी नेताओं को लिखा। यह चुनाव बाद कांग्रेस के साथ गठजोड़ की राह खोलने की कोशिश थी। लेकिन ऐसा करते हुए ममता ने बीजेपी के वैचारिक कार्यक्रमों की आलोचना नहीं की। उन्होंने संसद से उस कानून के पारित होने का हवाला दिया, जिसने दिल्ली सरकार के अधिकार सीमित कर दिए।
चिंता के मसले
ममता ने कहा कि यह सबूत है इस बात का कि मोदी सरकार 'भारत में एक पार्टी का राज' कायम करने का इरादा रखती है। लेकिन ममता के लेटर में आर्टिकल 370 और जम्मू कश्मीर का राज्य का दर्जा खत्म किए जाने का जिक्र नहीं था। लेटर में विपक्षी दलों से साझा मकसद के लिए एकजुट होने की अपील की गई। लेकिन एक भी बात वैचारिक आधार वाली नहीं थी। ममता ने विपक्षी दलों से समर्थन इसलिए नहीं मांगा कि बहुसंख्यकवाद के हमले से भारत को बचाना है। इस बारे में उनकी चिंता नहीं झलकी कि धार्मिक अल्पसंख्यकों को राजनीतिक तौर पर लगातार हाशिए पर धकेला जा रहा है। इस लेटर से यह साफ हो गया कि चुनाव का अजेंडा मोटे तौर पर बीजेपी ने सेट किया है और टीएमसी उसका जवाब दे रही है। इसलिए वोटों की गिनती से पहले ही राजनीतिक तौर पर बीजेपी जीत चुकी थी। चुनावी तौर पर भी उसे जीत मिलेगी या नहीं, यह 2 मई को पता चलेगा।
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