समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए पीएम को लेटर, बीजेपी नेता ने बताया क्या समस्याएं हैं और लागू होने पर क्या होंगे लाभ

नई दिल्ली देश भर के लिए समान नागरिक आचार संहिता लागू करने के लिए पीएम नरेंद्र मोदी को लेटर लिखकर गुहार लगाई गई है। के एडवोकेट और ने पीएम को लेटर लिखकर कहा है कि 23 नवंबर 1948 को संविधान में अनुच्छेद-44 जोड़ा गया था और इसके तहत प्रावधान किया गया है देश भर के नागरिकों क लिए समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कदम उठाया जाए। पीएम से गुहार लगाई गई है कि 23 नवंबर 2021 को देश भर में समान नागरिक संहिता लागू किया जाए। पीएम को लिखे लेटर में अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि बेटा हो या बेटी, माँ के पेट में बच्चा नौ महीने ही रहता है और प्रसव पीड़ा भी बेटा-बेटी के लिए एक समान होती है इससे स्पष्ट है कि महिला-पुरुष में भेदभाव भगवान, खुदा या जीसस नहीं बल्कि इंसान करता है। हमारे समाज में महिला-पुरुष में जो भेदभाव व्याप्त है वह रीति नहीं बल्कि मनुष्य द्वारा शुरू की गई कुरीति है, धार्मिक प्रथा नहीं बल्कि इंसान द्वारा द्वारा शुरू की गई कुप्रथा है और कुरीतियों और कुप्रथाओं को धर्म, मजहब या रिलिजन से जोड़ना बिलकुल गलत है। वैसे भी हमारा देश वेद-पुराण या बाइबिल-कुरान से नहीं बल्कि संविधान से चलता है और 'समता, समानता, समरसता, समान अवसर तथा समान अधिकार' संविधान की आत्मा है। कुछ लोग आर्टिकल 25 में प्रदत्त धार्मिक आजादी की दुहाई देकर 'समान नागरिक संहिता या भारतीय नागरिक संहिता' का विरोध करते है लेकिन आर्टिकल 25 की शुरुआत ही होती है ‘सब्जेक्ट टू पब्लिक ऑर्डर, हेल्थ एंड मोरैलिटी यानीकिसी भी प्रकार की 'कुप्रथा, कुरीति, पाखंड और भेदभाव' को आर्टिकल 25 का संरक्षण प्राप्त नहीं है। आगे लेटर में कहा गया है कि 1860 में बनाई गई भारतीय दंड संहिता, 1961 में बनाया गया पुलिस ऐक्ट, 1872 में बनाया गया एविडेंस एक्ट और 1908 में बनाया गया सिविल प्रोसीजर कोड सहित सभी कानून बिना किसी भेदभाव के सभी भारतीयों पर समान रूप से लागू हैं। लेकिन विस्तृत चर्चा के बाद बनाया गया आर्टिकल 44 अर्थात समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कभी भी गंभीर प्रयास नहीं किया गया. अब तक 125 बार संविधान में संशोधन किया गया और 5 बार सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी पलटा गया लेकिन आजतक 'समान नागरिक संहिता या भारतीय नागरिक संहिता' का एक मसौदा भी नहीं तैयार किया गया, परिणाम स्वरूप इससे होने वाले लाभ के बारे में बहुत कम लोगों को ही पता है। समान नागरिक संहिता शुरू से भाजपा के मैनिफेस्टो में है। अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि भारतीय नागरिक संहिता लागू नहीं होने से अनेक समस्याएं हैं..... -मुस्लिम पर्सनल लॉ में बहुविवाह अर्थात चार निकाह करने की छूट है लेकिन अन्य धर्मो में 'एक पति-एक पत्नी' का नियम बहुत कड़ाई से लागू है। बाझपन या नपुंसकता जैसा उचित कारण होने पर भी हिंदू ईसाई पारसी के लिए दूसरा विवाह अपराध है और भारतीय दंड संहिता की धारा 494 में 7 वर्ष की सजा का प्रावधान है इसीलिए कई लोग दूसरा विवाह करने के लिए मुस्लिम धर्म अपना लेते हैं। विवाह या किसी भी प्रकार से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का विषय है इसलिए यह पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल और रिलिजन न्यूट्रल होना चाहिए। - विवाह की न्यूनतम उम्र भी सबके लिए एक समान नहीं है। मुस्लिम लड़कियों की वयस्कता की उम्र निर्धारित नहीं है और माहवारी शुरू होने पर लड़की को निकाह योग्य मान लिया जाता है इसीलिए 11-12 वर्ष की उम्र में भी लड़कियों का निकाह किया जाता है जबकि अन्य धर्मो मे लड़कियों की विवाह की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष और लड़कों की विवाह की न्यूनतम उम्र 21 वर्ष है। विश्व स्वास्थ्य संगठन कई बार कह चुका कि 20 वर्ष से पहले लड़की शारीरिक और मानसिक रूप से परिपक्व नहीं होती है और 20 वर्ष से पहले गर्भधारण करना जच्चा-बच्चा दोनों के लिए अत्यधिक हानिकारक है। यह पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल और रिलिजन न्यूट्रल होना चाहिए। - एक बार में तीन तलाक अवैध घोषित होने के बावजूद तलाक-ए-हसन एवं तलाक-ए-अहसन आज भी मान्य है और इनमें भी तलाक का आधार बताने की बाध्यता नहीं है और केवल 3 महीने प्रतीक्षा करना है लेकिन अन्य धर्मो मे केवल न्यायालय के माध्यम से ही विवाह-विच्छेद किया जा सकता है. हिंदू ईसाई पारसी दम्पत्ति आपसी सहमति से भी मौखिक विवाह विच्छेद की सुविधा से वंचित है. मुसलमानों में प्रचलित तलाकों का न्यायपालिका के प्रति जवाबदेही नहीं होने के कारण मुस्लिम औरतों को हमेशा भय के वातावरण में रहना पड़ता है। - मुस्लिम कानून मे मौखिक वसीयत एवं दान मान्य है लेकिन अन्य धर्मो मे केवल पंजीकृत वसीयत एवं दान ही मान्य है. मुस्लिम कानून मे एक-तिहाई से अधिक सम्पत्ति का वसीयत नहीं किया जा सकता है जबकि अन्य धर्मो में शतप्रतिशत सम्पत्ति का वसीयत किया जा सकता है. वसीयत और दान किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल और रिलिजन न्यूट्रल होना चाहिए। - मुस्लिम कानून मे 'उत्तराधिकार' की व्यवस्था अत्यधिक जटिल है, पैत्रिक सम्पत्ति में पुत्र एवं पुत्रियों के मध्य अत्यधिक भेदभाव है, अन्य धर्मो में भी विवाहोपरान्त अर्जित सम्पत्ति में पत्नी के अधिकार अपरिभाषित हैं और उत्तराधिकार के कानून बहुत जटिल हैं, विवाह के बाद पुत्रियों के पैत्रिक सम्पत्ति में अधिकार सुरक्षित रखने की व्यवस्था नहीं है और विवाहोपरान्त अर्जित सम्पत्ति में पत्नी के अधिकार अपरिभाषित हैं. 'उत्तराधिकार' किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल और रिलिजन न्यूट्रल होना चाहिए। - विवाह विच्छेद (तलाक) का आधार भी सबके लिए एक समान नहीं है। व्याभिचार के आधार पर मुस्लिम अपनी बीबी को तलाक दे सकता है लेकिन बीबी अपने शौहर को तलाक नहीं दे सकती है। हिंदू पारसी और ईसाई धर्म में तो व्याभिचार तलाक का ग्राउंड ही नहीं है। कम उम्र में विवाह के आधार पर हिंदू धर्म में विवाह विच्छेद हो सकता है लेकिन पारसी ईसाई मुस्लिम में यह संभव नहीं है। 'विवाह विच्छेद' किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल और रिलिजन न्यूट्रल होना चाहिए। - गोद लेने का नियम भी हिंदू मुस्लिम पारसी ईसाई के लिए अलग अलग है। मुस्लिम गोद नहीं ले सकता और अन्य धर्मो मे भी पुरुष प्रधानता के साथ गोद व्यवस्था लागू है. 'गोद लेने का अधिकार' किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल और रिलिजन न्यूट्रल होना चाहिए। पीएम को लिखे लेटर ेमं कहा गया है कि उपरोक्त सभी विषय सिविल राइट और ह्यूमन राइट से सम्बन्धित हैं जिनका न तो धर्म या मजहब से किसी तरह का संबंध है और न तो इन्हें धार्मिक या मजहबी व्यवहार कहा जा सकता है लेकिन आजादी के 73 साल बाद भी धर्म या मजहब के नाम पर महिला-पुरुष में भेदभाव जारी है. हमारे संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 44 के माध्यम से 'समान नागरिक संहिता या भारतीय नागरिक संहिता' की कल्पना किया था ताकि सबको समान अधिकार मिले। समान नागरिक संहिता या भारतीय नागरिक संहिता हमारे संविधान की आत्मा है और इसके अनेक लाभ हैं। देश के सभी नागरिकों के लिए एक 'भारतीय नागरिक संहिता' लागू करने से देश और समाज को सैकड़ों जटिल कानूनों से मुक्ति मिलेगी। वर्तमान समय में अलग अलग धर्म के लिए लागू अलग अलग ब्रिटिश कानूनों से सबके मन में हीन भावना पैदा होती है इसलिए सभी नागरिकों के लिए एक 'भारतीय नागरिक संहिता' लागू होने से सबको हीन भावना से मुक्ति मिलेगी। एक पति-एक पत्नी’ की अवधारणा सभी भारतीयों पर एक समान रूप से लागू होगी। न्यायालय के माध्यम से विवाह-विच्छेद करने का एक सामान्य नियम सबके लिए लागू होगा। पैतृक संपति में पुत्र-पुत्री तथा बेटा-बहू को एक समान अधिकार प्राप्त होगा। विवाह-विच्छेद की स्थिति में विवाहोपरांत अर्जित संपति में पति-पत्नी को समान अधिकार होगा। वसीयत दान धर्मजत्व संरक्षकत्व बंटवारा गोद इत्यादि के संबंध में सभी भारतीयों पर एक समान कानून लागू होगा। विसंगति समाप्त होगी। राष्ट्रीय स्तर पर एक समग्र एवं एकीकृत कानून मिल सकेगा और सभी नागरिकों के लिए समान रूप से लागू होगा, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या इसाई। आखिर में इस लेटर के जरिये पीएम से गुहार लगाई गई है कि अनुच्छेद 44 पर बहस के दौरान बाबा साहब अंबेडकर ने कहा था- ”व्यवहारिक रूप से इस देश में एक सिविल संहिता है जिसके प्रावधान सर्वमान्य हैं और समान रूप से पूरे देश में लागू हैं। संविधान सभा के सदस्य के.एम. मुंशी ने कहा- “हम एक प्रगतिशील समाज हैं और ऐसे में धार्मिक क्रियाकलापों में हस्तक्षेप किए बिना हमें देश को एकीकृत करना चाहिए। विस्तृत चर्चा के बाद 23 नवंबर 1948 को अनुच्छेद 44 हमारे संविधान में जोड़ा गया था और इसके माध्यम से सरकार को निर्देश दिया गया कि वह देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करें। ऐसे में आपसे निवेदन है कि 23 नंवबर 2021 को 'समान नागरिक संहिता' लागू करने तथा पूरे देश में “समान अधिकार दिवस” मनाने के लिए संबंधित मंत्रालयों को आवश्यक निर्देश दें।


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