क्यों कहीं ज्यादा, तो कहीं कम घातक है कोरोना
नई दिल्ली चीन से शुरू हुई कोरोना (coronavirus) महामारी ने पूरी दुनिया में हाहाकार मचा रखा है। अब तक 61 लाख से अधिक लोग इसकी चपेट में आ चुके हैं जिनमें से 3 लाख 70 हजार से अधिक की मौत हो चुकी है। लेकिन एशियाई देशों की तुलना में पश्चिमी देशों में कोविड-19 से मरने वालों की तादाद बहुत अधिक है। भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था पश्चिमी देशों के मुकाबले कहीं पीछे है लेकिन उन देशों की तुलना में हमारे यहां मृत्यु दर बहुत कम है। विशेषज्ञों का कहना है कि पश्चिमी देशों में ज्यादा मृत्यु दर के कई कारण हैं। बुजुर्गों की ज्यादा आबादी कोरोना को बुजुर्गों के लिए बेहद घातक माना जा रहा है। सभी देशों में कोरोना से होने वाली मौतों में बुजुर्गों की संख्या अधिक है। पश्चिमी देशों में एशियाई और अफ्रीकी देशों की तुलना में बुजुर्गों की आबादी अधिक है। 2015 में अमेरिका में 70 साल और उससे अधिक उम्र के लोगों की आबादी 10 फीसदी और इटली में 16 फीसदी थी जबकि भारत में उनकी आबादी 3 फीसदी और चीन में 6 फीसदी थी। लेकिन इस तर्क में जापान और ब्राजील अपवाद हैं। ब्राजील में युवा आबादी जापान के मुकाबले कहीं ज्यादा है लेकिन वहां कोरोना से 27 हजार से अधिक मौतें हो चुकी हैं। जापान में बुजुर्गों की अच्छी खासी आबादी है लेकिन वहां कोरोना से हजार से भी कम मौतें हुई हैं। इससे साबित होता है कि अधिक मृत्यु दर के लिए केवल उम्र ही जिम्मेदार नहीं है। वॉशिंगटन पोस्ट के मुताबिक जापान में लोगों में साफ-सफाई रखने और मास्क पहनने की आदत है और वहां के लोग हाथ मिलाने के बजाय सिर झुकाकर अभिवादन करते हैं। साथ ही वहां सभी के लिए स्वास्थ्य सुविधा का प्रावधान है और बुजुर्गों का ध्यान रखने की परंपरा है। शायद इन कारणों से कोरोना जापान में ज्यादा कहर नहीं बरपा सका। मोटापा और दूसरी बीमारियां कई रिपोर्ट्स में दावा किया गया है कि मोटे लोगों को कोविड-19 के संक्रमण का ज्यादा खतरा है। एशियाई देशों की तुलना में पश्चिमी देशों में मोटे लोगों की तादाद बहुत अधिक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन () के मुताबिक 2016 में अमेरिका में 18 साल से ऊपर के 36 फीसदी लोग मोटापे का शिकार थे जबकि इटली में यह आबादी 20 फीसदी थी। इसकी तुलना में भारत और जापान में मोटे लोगों की आबादी 4 फीसदी थी। विशेषज्ञों का कहना है कि अन्य बीमारियों से जूझ रहे लोगों को कोविड-19 के संक्रमण का ज्यादा खतरा है। इनमें हाई ब्लड प्रेशर और डायबिटीज भी शामिल है। दिलचस्प बात है कि 2017 में भारत और अमेरिका में एक बराबर 10 फीसदी लोगों को डायबिटीज थी। लेकिन भारत में दिल की बीमारियों से मरने वालों की संख्या प्रति लाख में 282 थी जबकि अमेरिका में यह संख्या 151 थी। हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि अभी कोरोना के मामले लगातार बढ़ रहे हैं इसलिए अभी किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी। वंशानुगत अंतर अध्ययनों से पता चला है कि यूरोप में कोरोना के कारण ज्यादा मौतों का संबंध जेनेटिक्स से हो सकता है। कोरोना वायरस कोशिकाओं की सतह पर एसीई2 रिसेप्टर पर चिपककर संक्रमण फैलाता है। लेकिन एसीई1 जीन की मौजूदगी एसीई2 को प्रभावित करती है। इससे एसीई2 रिसेप्टरों की संख्या कम हो जाती है और संक्रमण का खतरा कम हो जाता है। आंकड़ों के मुताबिक जिन देशों में लोगों में एसीई1 जीन की फ्रीक्वेंसी कम होती है वहां संक्रमण और मौत का खतरा ज्यादा रहता है। खासकर यूरोप में ऐसा ही है। यूरोप में म्यूटेशन कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के मुताबिक एशिया से यूरोप पहुंचने पर वायरस ने शायद अपना रूप बदल लिया और वह ज्यादा खतरनाक हो गया। उनका कहना है कि वायरस के तीन रूप हैं- ए, बी और सी। बी स्ट्रेन पूर्वी एशिया के देशों में फैला है। ए और सी ने अमेरिका और यूरोप में कहर बरपाया है। हालांकि इसके अलग-अलग रूपों के बारे में पर्याप्त डेटा उपलब्ध नहीं है। ठंडा मौसम अध्ययनों के मुताबिक कोरोना गर्म और उमस वाले मौसम में कम तेजी से फैलता है। लेकिन ठंडे और सूखे मौसम में इसकी मारक क्षमता बढ़ जाती है। शायद यही वजह है कि गर्म एशियाई देशों की तुलना में यूरोप और अमेरिका में यह ज्यादा तेजी से फैला है। हालांकि गर्म जलवायु वाले कई दक्षिण अमेरिकी देशों में भी इसने हाहाकार मचा रखा है। लेकिन इसकी वजह यह हो सकती है कि दक्षिणी गोलार्द्ध में आजकर सर्दियां हैं। सख्त लॉकडाउन सख्त लॉकडाउन भी संक्रमण के कम मामलों और कम मृत्यु दर का कारण हो सकता है। स्वीडन, ईरान और तुर्की ने सख्त लॉकडाउन लागू नहीं किया था और वहां कोरोना से होने वाली मौतों की दर अधिक है। हालांकि जापान में भी सख्त पाबंदी नहीं लगाई गई थी लेकिन वहां मृत्यु दर बहुत कम है। भारत में शुरुआत में 21 दिन का सख्त लॉकडाउन लागू किया गया था। लेकिन दो करीब महीने बाद लॉकडाउन-4 में मिली छूट के बाद देश में कोरोना के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं।
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